Friday, September 30, 2011

शिक्षा की व्‍यवस्‍था से अनबन भला क्‍यों

शिक्षा बनाम व्यवस्था
अमन नम्र
शिक्षा और व्यवस्था के फेर में मैं इन दिनों बुरी तरह उलझा हुआ हूं। समझ नहीं आता शिक्षा की मेरी सोच गलत है या शिक्षा व्यवस्था की उनकी यानी स्‍कूलों की सोच। मेरे हिसाब से शिक्षा और व्यवस्था दो भिन्न चीजे हैं, शिक्षा यानी हर दिन, हर पल, हर गुजरते क्षण से कुछ नया सीखना और व्यवस्था यानी एक बनी-बनाई लीक, ढर्रे पर चलना। शिक्षित होना यानी खुद को पहचानना, आस-पास को जानना, समाज के हित में सोचना, भला करने की सामथर्य जुटाना और बुरे का विरोध करने की हिम्मत करना। वहीं व्यवस्था यानी बने-बनाए ढर्रे को चलाए रखने के लिए पढ़े-लिखे मशीनी पुर्जे तैयार करना, क्लर्क, अधिकारी,, बैंकर, इंजीनियर की लाइन खड़ी करना।
मैंने खुद तो बचपन में ही शिक्षा व्यवस्था स्वीकार कर ली थी, जस की तस। यानी, किताबों का रट्टा मारो और पास हो जाओ। स्‍कूल भी खुश, घर भी खुश। लेकिन अब ऐसा नहीं है, नई पीढ़ी इस व्यवस्था को मानने को राजी नहीं है। मेरे बेटे को ही लें, स्‍कूल से आए दिन उलाहनाएं, शिकायतें। कई बार तो स्‍कूल प्रबंधन ने बाकायदा बुलाकर वार्निंग तक दे दी। शिकायत यह कि वह वैसा नहीं करता जैसा बाकी बच्चे चुपचाप करते हैं। यानी,, जैसा कहा जाए ठीक वैसा। जब मैंने बेटे से पूछा तो उसका सवाल मुझे निरुत्तर कर गया। उसने पूछा, जो मुझे आता है, वह बार-बार क्यों पढ़ूं, आप पढ़ते हो क्या?
मजे की बात यह कि जब भी स्‍कूल में कोई नई गतिविधि, नया पाठ होता है, उसकी शिकायतें हवा हो जाती हैं। लेकिन दो या तीन दिनों तक ही। जब वही जानकारियां दो, तीन, चार और फिर बार-बार रटाई जाने लगती हैं, अक्सर उसकी मर्जी के खिलाफ तो वह बगावत पर उतर आता है। कक्ष में उत्पात शुरू कर देता है। दूसरे बच्चे जो चुपचाप 'शिक्षा की व्यवस्था चला रहे होते हैं उसके निशाने पर होते हैं। वह उनकी कापियां फाड़ देता है, किताबें फेंक देता हैं। विरोध जताने के और भी तमाम तरीकों पर पर अमल कर गुजरता है। अब तो स्‍कूल से आखिरी चेतावनी मिल चुकी है कि बच्चे को 'सुधार लें या किसी और स्‍कूल की राह लें। मेरी चिंता यह है कि बच्चे को 'सुधार कर उसे रटंत विद्या वाली शिक्षा व्यवस्था का पुर्जा बनने के लिए झोंक दूं या शिक्षा हासिल करने के लिए मुक्त रहने दूं?
उसे सितारों की सैर की कहानी सुनना बेहद पसंद हैं। समुद्र की गहराईयों में क्या-क्या मिलता है ये जानने में वह कभी बोर नहीं होता। पृथ्वी कब बनी,, आदमी कैसे इस पर आया, ज्वालामुखी जमीन के अंदर से बाहर कैसे निकलता है, ग्रहण कैसे लगते हैं, ये उसकी जिज्ञासाओं के विषय हैं। ऐसे में जब स्‍कूल प्रबंधन कहे कि वह ए फॉर एप्पल और बी फॉर बैलून बार-बार नहीं लिखता तो चाह कर भी मैं दोष बेटे में नहीं निकाल पाता। शायद ऐसी ही है शिक्षा की यह व्यवस्था। क्या कभी यह व्यवस्था ऐसी होगी जो बच्चों की जरूरत और रुचि के मुताबिक बने। जो बच्चों को सामाजिक सरोकारों, नैतिक मूल्यों और देश की जरूरतों से जोड़ें, उन्हें डाक्टर, इंजीनियर, अफसर से पहले अच्छा इंसान बनाए। उनका बचपन भी बना रहे और उनमें देश के जिम्मेदार नागरिक की नींव भी पड़ जाए। जब लॉर्ड मैकाले ने हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था बदली थी तब उनका मानना था कि अंग्रेजी नहीं जानने वाले, अनपढ़ भारतीय अंग्रेजी साम्राज्य के लिए खतरा बन सकते हैं। वहीं अंग्रेजी जानने वाले भारतीयों से उन्हें कोई खतरा नहीं होगा; क्या आज भी शिक्षा व्यवस्था के पैरोकार कुछ ऐसा ही नहीं सोचते कि उनकी व्यवस्था में शिक्षा नहीं हासिल करने वाले उनकी व्यवस्था के लिए खतरा बन सकते हैं। बहरहाल, मैं तो इन दिनों अपने बेटे के लिए एक अदद ऐसे स्‍कूल की खोज में हूं जहां व्यवस्था भले न हो पर वह 'शिक्षा देता हो।

Monday, April 14, 2008

सिमी हो या विमी, क्‍या फर्क पड़ता है

आज सुबह की ही बात है। मिर्जा मेरे घर पर आए। बगल में अखबार और मुंह में पान की सुर्ख लाली। पजामे की हालत देखकर लग रहा था, जैसे बिस्‍तर छोड़कर सीधे पनवाड़ी दुकान से मेरे घर तशरीफ ले आए हों। फिर भी मैंने पूछ ही लिया- क्‍यों मिर्जा साहब, आज सुबह-सुबह? कोई खास बात है क्‍या? मिर्जा ने पान की पीक मेरे फ्लैट की सीड़ियों पर ही थूकते हुए कहा, 'अमां मियां, खुद को पत्रकार कहते हो और इतना भी पता नहीं कि आज क्‍या गड़बड़ हो गई है?'
मैंने पूछा, ऐसी क्‍या बात है, जो हमें पता नहीं ? कोई अनहोनी तो नहीं हुई ? मिर्जा बोले, मियां मरे हमारे दुश्‍मन, हम इतनी जल्‍दी थोड़े ही खिसकने वाले हैं। हुआ यूं कि तुम्‍हारी भाभी कल शाम को बाजार गई थीं और वहां से साबुन की टिकिया थोक के भाव उठा लाईं।
मैंने कहा, इसमे परेशानी की क्‍या बात है। गर्मी का मौसम है, खूब नहाओ। मिर्जा उबल पड़े, कहने लगे, क्‍या खूब मजाक करते हो मियां ? अखबार में छपा है कि सिमी ने नया संगठन विमी बना लिया है।
मैंने हंसते हुए कहा, 'तो क्‍या हुआ, नाम से कोई फर्क पड़ता है भला ?' नाम बदल जाए, पर काम तो वही रहेगा।
अब मिर्जा अपने रंग में आए और बोले, 'इत्‍ती देर से वही तो समझा रिया हूं मियां। तुम्‍हारी भाई जो साबुन लेकर आई हैं, उसका नाम भी विमी बार है।' मैंने कहा, चलो अच्‍छा है, इसी बहाने ब्रांडिंग भी हो गई। तो इसमें घबराने वाली क्‍या बात है ?
चाय का प्‍याला हाथ में लेकर कुल्‍ला करने के अंदाज में मिर्जा बोले, कल को अगर घर पर रेड पड़ गई तो ? में तो खामखां मारा जाऊंगा। मैंने समझाया, देखिए मिर्जा साहब, दुनिया में न जाने कितनी विमी होंगी, उसी के नाम पर साबुन का नाम रख लिया होगा। वैसे भी कल को तो 'उन्‍हें' भी राजनीति की मुख्‍य धारा में आना ही है, जैसे जम्‍मू-कश्‍मीर के आतंकी संगठनों ने आजकल एक पार्टी बना ली है।
यह सुनते ही मिर्जा सोफे पर उछलकर बैठ गए, बोले - क्‍या बात करते हो मियां ? मैंने कहा, हां। अब नेपाल को ही देख लो, कल तक जंगल में रहने वाले माओवादी आज सत्‍ता के दावेदार हैं। चुनाव जीत गए हैं।
मैंने कहा, राजनीति है ही ऐसी चीज कि जिसने इसका लड्डू एक बार गटक लिया, उसकी तो पौ बारह। मिर्जा सुनते रहे, बिस्‍कुट की प्‍लेट खाली होती रही और वक्‍त गुजरता रहा। मैंने उन्‍हें समझाइश दी कि घर जाकर पहले तो नए विमी साबुन से अच्‍छी तरह नहाएं-धोएं, प्रोडक्‍ट को परखें और फिर बताएं कि उन्‍हें कैसा महसूस हुआ। अगर प्रोडक्‍ट सचमुच 'काफी बड़ा' हुआ तो आगे वापरें, वरना भूल जाएं। मैंने उन्‍हें यह भी कहा कि आने वाले समय के ब्रांड एंबेसेडर यही लोग होंगे। हो सकता है कि कल आप 'प्रचंड' डिटर्जेंट केक देखें, या नागौरी नमकीन। असल बात नाम की चर्चा से है। नाम चर्चित हो तो ब्रांड बनने में देर नहीं लगती। बाजार ही ऐसा है, जो दिखता है वही बिकता है। रामदास सैफ को भले ही चिप्‍स के विज्ञापन के लिए कोस लें, नाम में वजन के हिसाब से वे पीछे ही रहेंगे।
मिर्जा की बिस्‍कुट खत्‍म हो गई थी और चाय भी। बोले, 'खामखां मेरा औप अपना वक्‍त बरबाद किया। शाम को ही बता देते तो तुम्‍हारी भाभी को इतनी डांट न खानी पड़ती। खैर में तो चल रिया हूं, पर ध्‍यान रखना......... आगे से ऐसी जरूरी बातें हमें बताते रहना, नई तो चाय-बिस्‍कुट का खर्चा महंगा पड़ जाएगा।'